“सनसप्तक” निर्मित बहुचर्चित नाटक ‘’गर्भ’’ को राजधानी दिल्ली के दर्शकों की अपार सराहना मिली। मूल रूप से बांग्ला में ‘’गर्भोज’’ के नाम से लिखित इस नाटक का पहला मंचन तोरित मित्रा के निर्देशन में 1994 में हुआ था। उसके बाद से अब तक इसके दिल्ली और कोलकाता में दर्जनों मंचन हो चुके हैं। 2010 में ‘’गर्भ’’ के नाम से इसका हिंदी रूपांतरण हुआ। हिंदी रूपांतरण के बाद साल 2011 के दिल्ली के भारतेंदु नाट्य उत्सव में इसका प्रदर्शन किया गया, जहां साहित्य कला परिषद् ने इसके निदेशक और लेखक तोरित मित्रा को सर्वश्रेष्ठ निदेशक के सम्मान से सम्मानित भी किया।
‘’गर्भ’’ मानसिक ऊहापोह और द्वंद की स्थिति से गुजरने वाले झारखंड के एक किसान परिवार की कथा है। बांग्ला में तोरित मित्रा द्वारा लिखित और हिंदी में अंजन बोस द्वारा निर्देशित यह नाटक झारखंड के एक किसान सुखदेव पुस्वा के नितांत निजी जीवन की कथा का बयान करता है। दिल्ली विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान की पढ़ाई करने वाले विश्वेश्वर और उनकी मित्र स्वर्णरेखा के फ्लैशबैक में इसकी कथा चलती है। इस नाटक का ताना-बाना जिस तरह से बुना गया है वह रहस्य की दुनिया में भी दर्शकों को ले जाने के लिए विवश करता है। शोधार्थी का जीवन जीने वाले विश्वेश्वर को जब अपने परिवार के अतीत की याद आती है तो नाटक में एक कंट्रास्ट की रचना होती है। और कुल मिलाकर यही नाटक की जान भी है।
अतीत में किए गए एक भयानक पाप ने पूरे परिवार में अंधेरे को जन्म दिया है। इससे यह परिवार सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक पतन की तरफ बढ़ता है। सुखदेव अपने बड़े बेटे अघन के लिए असहाय और आक्रामक हो जाता है। वह माओवादी विद्रोही होकर लगभग पागल हो जाता है और उनका छोटा बेटा बुद्धुवा गैरकानूनी काम में लिप्त हो जाता है। अपने और अपने परिवार के दुख के लिए वह बाहर से आकर बसे गैर-आदिवासियों पर आरोप लगाता है। सुखदेव की पत्नी सुमरी देवी परिवार की एकमात्र ऐसी सदस्य हैं जो सबको एक दूसरे से जोड़े हुए है।
हालात तब और अधिक रहस्यमय हो जाते हैं जब एक उपजाऊ भूमि, जिसे सालों तक बंजर माना गया, वह अचानक उपजाऊ हो जाती है। इस तरह के हालात कई सवाल पैदा करते हैं। इससे कामख्या और मूल निवासी और विदेशियों के बीच ऐतिहासिक मतभेद और अधिक चरम पर पहुंच जाते हैं और हकीकत खुलकर सामने आ जाती है। सभी पारंपरिक मूल्यों और नैतिकता को चूर-चूर करने के लिए आमादा हो जाते हैं। मानव निर्मित समाज और प्रकृति के नियमों के बीच अस्तित्व के लिए लड़ने के लिए केवल परालौकिक शक्ति ही प्रेरणा है।
दिनांक 23 और 24 जून को नई दिल्ली के चित्तरंजन पार्क स्थित वीसी पॉल आडोटोरियम में मंचित इस नाटक को दर्शकों की अपार सराहना मिली। नाटक के सभी पात्रों ने अपने-अपने किरदारों के साथ पूरी ईमानदारी के साथ न्याय किया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में प्रसिद्ध लेखक, पत्रकार और रंग समीक्षक जयदेव तनेजा और आलोचक-संपादक ज्योतिष जोशी की गरिमामयी मौजूदगी देखी गई। दोनों अतिथियों ने नाटक की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह नाटक उनके न केवल दिलों को छू गया बल्कि ग्रामीण समस्या और वर्तमान किसानों की दुर्दशा को मंच पर सजीव कर दिया।
पात्र परिचय
सुखदेव पुस्वा : सुकृत गुलाटी
सुमरी देवी : परोमा भट्टाचार्य
अघान पुस्वा : सौरभ सैनी
बुद्धूवा पुस्वा : सचिन बिष्ट
विश्वेश्वर पुस्वा : स्वागत नंदा
सुवर्णरेखा चक्रवर्ती : सिमरन
कामाख्या प्रसाद सिंह : साहेब जेना
टिकेंदर : रोहन तोगडि़या
नाटक में योगदान-
क्रिएटिव सलाहकार : तोरित मित्रा और रुमा बोस
म्यूजिक डिजाइन : अंजन बोस और श्रीमोयी दासगुप्ता
म्यूजिक ऑपरेशन : श्रीमयी दासगुप्ता
मंच और प्रकाश व्यवस्था : अंजन बोस
अनुवाद और सहायक निदेशक : श्रीमोयी दासगुप्ता
पटकथा : तोरित मित्रा
डिजाइन और निदेशन : अंजन बोस