आदिवासियों की मनोवृति से ना हो खिलवाड़’

1502

नईदिल्ली

– गांवों और आदिवासियों की स्थिति पर हुआ गंभीर मंथन
– ककसाड़ पत्रिका के प्रकाशन के तीन वर्ष पूर्ण
– पत्रिका की वेबसाइट का किया गया लोकार्पण

भाद्र मास का अंतिम दिन… बारिश की बूंदा-बांदी, फिर भी उमस. मौसम के मिजाज जैसा ही ककसाड़ के दिल्ली स्थित दफ्तर में गर्मागर्म बहस। दरअसल ककसाड़ पत्रिका के तीन वर्ष पूरे होने पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया था। परिचर्चा विषय था- ‘लेखन में गांव व आदिवासी’.
वैश्विक मामलों की अंग्रेजी पत्रिका ‘कल्ट करंट’ के संपादक श्रीराजेश ने सभी अतिथियों का स्वागत किया तथा ककसाड़ पत्रिका के उद्देश्यों को रेखांकित करते हुए वर्तमान दौर में मीडिया में गांव व आदिवासियों के सरोकारों से जुड़ी खबरों के नदारद होने पर चिंता व्यक्त करते हुए पत्रकारों से इनके सरोकारों को अपने लेखन का विषय बनाने का आग्रह किया, तो वहीं ककसाड़ के संपादक डॉ राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि वर्तमान दौर में विकास की बात करते हुए गांवों की मौलिकता और उसकी नैसर्गिकता को खत्म किया जा रहा है, आदिवासियों को अपने स्थान से विस्थापित किया जा रहा है। वास्तव में विकास सिर्फ जीडीपी के आंकड़ों तक सिमटने के बजाय गांवों व जंगलों तक पहुंचना चाहिए और कल्याणकारी राज व्यवस्था की सबसे पहली प्राथमिकता यहीं होती है। डॉ. त्रिपाठी ने कहा कि गांव कस्बे में तब्दिल हो रहे हैं, और इसे विकास मान लिया जाता है। जबकि गांवों को कस्बा बनाने की बजाय आदर्श गांव बनाने की दिशा में प्रयास किये जाने चाहिए। आदिवासियों की स्थिति तो और भयावह हो उठी है। उन्हें साजिशन जंगलों से बाहर निकाला जा रहा है। आदिवासियों के लिए जंगल केवल पेड़-पौधे-झाड़ियां नहीं हैं, यह उनकी अस्मिता, संस्कृति, संस्कार और सरोकार हैं। जंगल के बगैर आदिवासी जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।

वरिष्ठ पत्रकार शैलेंद्र मौर्या ने तीन वर्ष पूरे होने पर ककसाड़ पत्रिका के संपादक को बधाई देते हुए कहा कि आज ऐसे पत्रिका की जरूरत है जो गांव घर की बात कर सके। आदिवासियों की बात को समाज के सभी तबकों तक पहुंचाये जाने की जरूरत है। जिसे पूरा करने में ककसाड़ पत्रिका कोई कसर नहीं छोड़ी है। जिस प्रकार से गांव घर की बात इस पत्रिका में उठती रही है जिससे आज समाज के अन्य वर्गों को भी काफी कुछ ऐसी जानकारी मिली है जिसके बारे में वह सोच भी नहीं सकते हैं। हमारे गांव घर और आदिवासियों के पास संस्कृति के कई मूल धरोहर आज भी जीवित हैं जिसे पत्रिका ने आगे लाया है। ककसाड़ पत्रिका डॉ. राजाराम त्रिपाठी के मार्गदर्शन में निश्चिततौर पर नित्य नए कीर्तिमान स्थापित करेगा ऐसी हमारी शुभकामना है। डॉ.राजाराम त्रिपाठी की खास खूबी है कि खूद जमीनी पत्रिकारिता के पक्षधर हैं जिसका जीता जागता स्वरूप काकसाड़ में साफ देखने को मिलता है। आने वाले दिनों में काकसाड़ पत्रिका जगत में मील का पत्थर साबित होगा।

आदिवासी मामलों पर लगातार रचनात्मक कर्म से जुड़े तथा बस्तर के आदिवासियों पर कई पुस्तकें लिख चुके राजीव रंजन प्रसाद ने कहा कि हमारा कथित सभ्य समाज अपने हितों के लिए रहन-सहन के हिसाब से आदिवासियों का भी वर्गीकरण कर दिया और उनकी एकता को खंडित करने का काम किया है। उन्होंने कहा कि आदिवासियों की मनोवृति से लगातार खिलवाड़ किया जा रहा है। इसकी परिणति बड़े खौफनाक ढंग से सामने आने वाली है। उन्होंने कहा कि बस्तर के आदिवासियों पर लिखा तो बहुत गया है, लेकिन वह टूकड़े- टूकड़े में है। आदिवासियों की जो समस्याएं हैं, उसे दिल्ली जिस नजर से देखती है, वह हकीकत से कोसो दूर है। लेकिन इनकी समस्याओं को समझने तक की फूर्सत राजसत्ताओं की नहीं है। यहां नक्सली उग्रवाद बढ़ा है लेकिन इससे आदिवासी समुदाय किस तरह पिस रहा है, इसका आकलन दिल्ली नहीं कर पा रही है।
वरिष्ठ पत्रकार धीरेंद्रनाथ श्रीवास्तव ने कहा कि गांवों की समस्याओं का बारिक अध्ययन किया जाता है तो देखा जाता है कि देश के हर हिस्से के गांवों की समस्याएं एक जैसी है। इसी तरह गांवों में रहने वालें मुसहर या ऐसी पिछड़ी जातियों को भी आदिवासियों के रूप में स्वीकार कर आदिवासी शब्द की परिभाषा को व्यापक बनाया जा सकता है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि लोकतंत्र में जनशक्ति सबसे बड़ी ताकत होती है और इससे ही बदलाव आता है।
वरिष्ठ पत्रकार पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि लेखन में जब गांवों, आदिवासियों और जंगल का वर्णन आता है तो वहां के रहन सहन, कला संस्कृति, पर्व त्योहार की चर्चा आती है और ये चर्चाएं संबंधित समय और संबंधित वर्ग के बारे में जानकारी देने वाले दस्तावेज होते हैं। अगर हमें अपने पर्यावरण को बचाना है तो सबसे पहले गांव औऱ जंगलों का संरक्षण करना आवश्यक होता है। विकास के नाम पर जंगलों की कटाई लंबे समय से चल रहा है, विरोध में आवाजें भी उठती रही है, लेकिन जंगल का रकबा लगातार कम होते जा रहा है। हालात ये है कि बाजार विचार बना रहे हैं औऱ विचार बाजार बना रहे हैं। ये स्थिति ठीक नहीं है।
वरिष्ठ साहित्यकार व आलोचक डॉ ओम निश्चल ने कहा कि भले कि विकास घोड़े पर चढ़ कर आ रहा हो, लेकिन गांवों की मौलिकता बरकरार रहनी चाहिए। कई पुराने लेखकों ने अपने लेखन में जिस गांव को रेखांकित है, आज वैसे गांव कही नहीं है। हाल में बालेंदु द्विवेदी की मदारीपुर जक्शन में जिस प्रकार गांव के माहौल की चर्चा की गई है वह बदलते गांव को परिभाषित करता है। उन्होंने गांव और गांव की वैशिष्ठता पर केंद्रित अपनी कविता का पाठ किया, जिसे श्रोताओं ने काफी पसंद किया। चित्रकार व गजलकार विज्ञान व्रत और कवि विपीन जैन ने भी अपनी कविता से विषय वस्तु को रेखांकित किया। ककसाड़ पत्रिका की प्रबंधक व परामर्श संपादक कुसुमलता सिंह ने कहा कि ककसाड़ जनजातीय सरोकारों के साथ ग्रामीण भारत के सरोकारों से संबंधित रचनाओं के निरंतर प्रकाशन के प्रति प्रतिबद्ध है। कार्यक्रम में पत्रिका की वेबसाइट www.kaksaad.in का लोकार्पण भी किया गया। कार्यक्रम का संचालन पत्रिका की वरिष्ठ संपादक पुनम श्रीवास्तव कुदैसिया ने किया तथा संयोजन में राजेश कुमार, संतोष कुमार, पीयुष की महती भूमिका थी।