नहाय खाय के साथ ही शुरू हो गया सूर्य उपासना का महापर्व छठ

1387

 

सूर्य उपासना का महापर्व छठ। दिवाली के बाद सूर्य उपासना का यह पर्व छठ पूरे बिहार,पूर्वी उत्तर प्रदेश और पड़ोसी देश नेपाल में अपार श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की यह तिथि यहां सूर्य षष्ठी व ‘डाला छठ’ के नाम से भी जानी जाती है। इस पर्व में नियम-निष्ठा व पवित्रता, शुचिता, सफाई का बहुत खयाल रखा जाता है।

एक मात्र प्रत्यक्ष देवता सूर्य की पूजा पूरे वर्ष ही विभिन्न रूपों से की जाती है। पर छठ पूजा के मौके पर सूर्य की उपासना का ढंग निराला है। इसमें न केवल उगते, बल्कि डूबते सूर्य को भी अर्घ्य दिया जाता है।

छठ पूजा के इतिहास की ओर दृष्टि डालें, तो इसका प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मानकर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर (तालाब) के किनारे यह पूजा की जाती है।

छठ पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन शुरू करते हैं, जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है। इस पर्व की विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी मंदिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी (पूजा-स्थल) और प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है। तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएं कई दिनों से तैयारी करती हैं। इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं, जहां पूजा स्थल होता है वहां नहा धो कर ही जाते हैं। यही नहीं, तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर ही सोते हैं। पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है, जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ, ( बिहार में इसे खजूर कहते हैं। यह बाजरे के आटे और गुड़ व तिल से बने हुए पुए जैसा होता है) नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल,इस पर चढ़ाने के लिए लाल/ पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर बारह दीपक लगे हों, गन्ने के बारह पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएं अपने बाल धोकर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रखकर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं। छठ पर्व पर दूसरे दिन पूरे दिन व्रत (उपवास) रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की बखीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा (मिट्टी के बर्तन) में रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में खीर का ही भोजन किया जाता है और सगे संबंधियों में इसे बांटा जाता है।

तीसरे यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है। पूरे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं, में पूजा के सभी सामान डालकर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहां पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में कपड़े में लिपटा हुआ नारियल, पांच प्रकार के फल, पूजा के अन्य सामान लेकर दौरी में रखकर घर के पुरुष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले जाते हैं। यह अपवित्र न हो जाए, इसलिए इसे सिर पर रखते हैं। नदी किनारे जाकर नदी से मिट्टी निकालकर छठ माता का चौरा बनाते हैं, वहीं पूजा का सारा सामान रखकर नारियल चढ़ाते हैं और दीप जलाते हैं। उसके बाद टखने भर पानी में जा कर खड़े होते हैं और सूर्य देव की पूजा के लिए सूप में सारा सामान लेकर पानी से अर्घ्य देते हैं और पांच बार परिक्रमा करते हैं। सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान लेकर सोहर गाते हुए घर आ जाते हैं और देवकरी में रख देते हैं। रात को पूजा करते हैं। कृष्ण पक्ष की रात जब कुछ भी दिखाई नहीं देता श्रद्धालु अलसुबह सूर्योदय से दो घंटे पहले पूजा का नया सामान लेकर नदी किनारे जाते हैं। पूजा का सामान फिर उसी प्रकार नदी से मिट्टी निकाल कर चौक बनाकर उस पर रखा जाता है और पूजन शुरू होता है।

सूर्य देव की प्रतीक्षा में महिलाएं हाथ में सामान से भरा सूप लेकर सूर्य देव की आराधना और पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है, सब लोगों के चेहरे पर एक खुशी दिखाई देती है और महिलाएं अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं। शाम को पानी से अर्घ्य देते हैं, लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया जाता है। इस समय सभी नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा का सामान लेकर घर आ जाते हैं। घर पहुंच कर देवकरी में पूजा का सामान रख दिया जाता है और महिलाएं प्रसाद लेकर अपना व्रत खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है।