-चिरंजीत कुमार शर्मा (राष्ट्रीय सचिव, राष्ट्रीय मानवाधिकार परिषद, भारत)
मेरे दोस्तों मैं समय समय पर अपने लेखो द्वारा बताना या समझाने की कोशिश करता रहा हूं कि देश से बढ़कर कुछ नहीं होना चाहिए, देश की गरिमा से बढ़कर हमारे लिए हम भी महत्वपूर्ण नहीं हो सकते, हमारी संस्कृति वसुदेव कुटुम्ब कुम की है जिसमें पूरा विश्व हमारे लिए एक परिवार है और उसकी, संस्कृति, गरिमय आज और शांतिपूर्ण कल को महत्व दिया है। हमारी संस्कृति और इतिहास हमें बताती है हमारे पूर्वजों ने किस तरह अपनी वाणी से निकलें शब्दों को अपने जीवन से ज्यादा महत्व दिया है। हमारे इतिहास के पन्ने ऐसी गौरवशाली गाथा से भरे पड़े हैं जहां अपने शब्दों और अपने विचारों, अपने वादों को लोगों ने निभाकर अपने पुरुषार्थ का परिचय पूरे विश्व को दिया है,
जहां लोगों ने देश और उसकी गरिमा को विश्व के पटल पर कुछ इस तरह पहुंचाया कि विश्व और यूनाइटेड नेशन भी हमारे सामने नतमस्तक हुआ है ये हमे दुनिया में एक अलग पहचान दिलाता है।
मेरे दोस्तों लेकिन ना जाने क्यों आज हमारे समाज में इन पद चिन्हों पर चलने में कमी आयी है, हम अपने छोटे से स्वार्थ के लिए अपनी वाणी को इज्जत ना देते हुए कथनी और करनी में अंतर करते हैं, भ्रष्टाचार करने से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता, भ्रष्टाचार से पैदा की गई दौलत और उससे बनते दौलतमंद लोगों को समाज में हम इज्जत के पात्र समझते हैं और देते हैं, और ईमानदारी से जीवनयापन करने वाले और मेंहनतकश इंसान को इसलिए कम सम्मान देते हैं क्योंकि हमारे लिए इज्जत और सम्मान की कसौटी केवल धन दौलत बन गयी है जिसके कारण हर तरफ इसकी दौड़ में सभी शामिल होते जा रहे हैं और भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है।
फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन और उसकी व्यवस्थाओं भी इन्हीं को अपना आदर्श मानती है इसलिए समाज में आर्थिक और सामाजिक और सांस्कृतिकके साथ सभी विकास व्यापार का रूप ले चुके हैं, जिसके कारण आपसी रिश्ते भी व्यापार की कसौटी पर बनते और बिगड़ते हैं।
मेरे दोस्तों ये किताबी बातें नहीं है गूढ़ सत्य है हमारी सोच और सामाजिक पृष्ठभूमि का, मैं रोज बड़े नजदीक से इसे महसूस करता हूं और सोचता हूं क्या यही नया भारत हैं आप सभी को इस पर चिंतन-मनन करना चाहिए।
दोस्तों हमारे देश की पहचान धूमिल हो रहीं हैं और उसका मुख्य कारण है राजनीति भ्रष्टाचार और राजनीतिक दलों की आगे बढ़ने की चाहत, जिसने राजनीति में झूठ, पाखंड, पैसा, गुंडागर्दी, झूठ बोलने और आम आदमी के अधिकारों के हनन को बहुत बढ़ाया है या यूं कहें वो चरम सीमा पर है, देश के राजनीतिक दल अपनी पृष्ठभूमि को बढ़ाने या स्थापित करने के लिए देशद्रोही ताकतों से सहायता या उनका समर्थन करने से भी नहीं चुकते, देश में सामाजिक आंदोलन राजनीतिक दलों की कठपुतली बन गयी है और आंदोलन के सही मुद्दे उनमें गौण हो गये है या समाप्त हो गये है और सही और ग़लत दोनों को अपने अपने अनुसार प्रस्तुत किया जा रहा है। जिसमें आंदोलन के असली मुद्दे कहीं खो गये है और देशभक्ति की केवल डडी को ढौल पर बजाया जा रहा है लेकिन कर्म की कसौटी पर वो कहीं दिखाई नहीं देता।
मेरे दोस्तों अभी कुछ दिन पहले में बिहार में एक सम्मान समारोह में शामिल हुआ, क्योंकि मैं भी उसमें सम्मानित होना था इसलिए मैं अपने परम मित्र जो बिहार पुलिस एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं उनके साथ सभी लोगों के विचारों को सुन रहा था क्योंकि उसमें प्रदेश के मीडिया हाऊस से भी लोग अपने विचार व्यक्त कर रहे थे और अपने आपको संविधान का चौथा स्तम्भ बताकर अपने विचारों की श्रेष्ठता साबित करने में लगें थे, प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और विधानसभा स्पीकर भी उन्हें चौथा स्तम्भ मानकर सम्बोधन कर रहे थे और उसमें कुछ मीडिया कर्मी किसान आंदोलन को सही साबित करते हुए गांधी जी के वक्तव्य को समझा रहे थे कि उन्होंने साउथ अफ्रीका में किसी का हाथ पकड़ कर बोला था डरना नहीं, ना जाने क्यों मुझे ऐसा लगा जैसे वो वहां भी झूठ बोलकर अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं और फिर मैंने सोचा गांधीजी ने किसका हाथ पकड़ा था और किस परिपेक्ष में ना डरने को बोला था क्योंकि किसान आंदोलन आंदोलन नहीं है वो मुमेट है देश की सरकार को विश्व के पटल पर बदनाम करने के लिए, जो राजनीतिक दलों के फायदे और नुकसान से ओतप्रोत है जिसमें सरकार बनाने और बिगाड़ने के इरादे शामिल हैं क्योंकि कोई भी आंदोलन आम आदमी के अधिकारों का हनन करके अपने अधिकारों की वकालत नहीं करता लेकिन वो कह रहे थे और वो उतना ही झूठ था जितना उनका अपने आपको संविधान का चौथा स्तम्भ मानना, क्योंकि संविधान विशेषज्ञ और संविधान को मैं सही से समझता हूं जिसमें केवल तीन ही स्तम्भ है लेकिन उपमुख्यमंत्री और विधानसभा स्पीकर चुपचाप उसे सुन ही नहीं रहे थे मान भी रहे थे क्योंकि कहीं ना कहीं उनकी वाणी में भी उनकी कार्यप्रणाली में अंतर समझ आ रहा था और शायद वो नहीं चाहते थे की वो मीडिया के लोगों के शब्दों को सही करें, शाय़द वहां गांधीजी के वो शब्द डरना नहीं डरा रहे थे।
दोस्तों गांधी जी के नाम को इस्तेमाल करके लोग अपने फायदे और नुकसान राजनीतिक दलों की विचारधारा को सही साबित करने में करते हैं लेकिन गांधीजी के शब्दों और उसमें छुपे संदेशों को हम लोग पढ़ने और समझने में मात खा गए जिसके कारण आज़ गांधीजी एक परिवार या आंदोलनकारियों के गलत मनसुबे जिसमें आम जनता के अधिकारों का हनन करके सरकारी और गैर-सरकारी कामों में बांधा डालने से ज्यादा कुछ नहीं है, जो हमारे देश को कहीं ना कहीं किसी ना किसी रूप में प्रभावित कर रहा है, हमें इस पर भी चिंतन मनन करने की आवश्यकता है।
दोस्तों मैं मानता हूं हमारा देश बदल रहा है क्योंकि अगर ये नहीं बदलता तो विश्व में अन्न उगाने में तीसरा स्थान होने के बावजूद देश की उन्नीस प्रतिशत जनता रोज़ रात को भूखी नहीं सोती, भूखमरी इंडेक्स में हमारे स्थान 118 वा नहीं होता।
देश नहीं बदल रहा होता तो भ्रष्टाचार के ऊपर संसद में बात ना होकर देश मे विकास के मुद्दों पर चर्चा होती लेकिन यहां चर्चा का विषय आपका भ्रष्टाचार ज्यादा और हमारा कम पर होती है।
अगर देश नहीं बदल रहा होता तो देश में आरक्षण के कारण एक 220 रेक लाने वाले को वो कालिज पढ़ने को नहीं मिलता जो 22000 रेक लाने वाले आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों को मिल जाती है।
देश नहीं बदल रहा होता तो कोई आंदोलन कारी आम आदमी के संविधानिक अधिकारों का हनन करके उसके चलने वाली सड़क पर अपना आंदोलन नहीं कर पाते।
और देश की सरकार उनके सामने असहाय होती।
देश नहीं बदल रहा होता तो राजनीतिक दलों में देश से पहले अपने विकास का एजेंडा ना होता।
देश नहीं बदल रहा होता तो ईमानदारी से काम करने वाले प्रोफेशनल को काम की कमी और भ्रष्ट प्रोफेशनल को काम ही काम नहीं होता।
हम बदल रहे हैं और बदल रहा है हमारे साथ देश लेकिन जिस राह पर हम बदल रहे हैं उसमें हमारी संस्कृति पहचान जिंदा रह पायेगी ये भविष्य को प्रश्नचिन्ह लगा रहा है। चिंतन करें और आवाज लगाये सोयी हुईं अंतरात्मा को।