डर ने मुझको जिन्दा रखा: संजय शेफर्ड

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देश के जानेमाने ट्रैवलर और ट्रेवल राइटर संजय शेफर्ड इन दिनों उत्तराखंड एक्सप्लोर कर रहे हैं। पिछले एक सप्ताह के दौरान गरतांग गली, सत्ताल ट्रेक, सुमेरु पर्वत, पंचमुखी महादेव और अंत में लामा टॉप को सोलो ट्रेक किया है और अंत लामा टॉप से उतरते हुए रात हो गई और फंस गए। बावजूद इसके वह हिम्मत नहीं हारे समझ और संतुलन का परिचय दिया और जिन्दा बचकर मिशाल कायम की। वह बता रहे हैं कि कैसे खुदको बचाया। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिये।

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इस बार मौसम हिमालय में ट्रेकिंग के अनुकूल नहीं है। जितने भी ट्रेकर्स आ रहे हैं ज्यादातर बिना ट्रेक किये ही वापस चले जा रहे हैं। मेरा मन ट्रेकिंग का नहीं था और मेरी तैयारी भी नहीं थी पर मौसम थोड़ा सही हो गया तो मैंने एक-एक करके एक सप्ताह के भीतर पांच ट्रेक किये और सब ठीक रहा।

गरतांग गली, सत्ताल ट्रेक, सुमेरु पर्वत, पंचमुखी महादेव और अंत में लामा टॉप जहां पर फंसा। हालांकि इन सबसे सबसे आसान ट्रेक यही है।

ट्रेक इजी था, कैलकुलेशन गलत हो गया।

इस ट्रेक में एक नहीं चार-पांच गलतियां एक साथ हुईं और यही कारण रहा कि सबकुछ फ़ेवर में होते हुए भी मौत के मुंह तक पहुंच गया। एक ऐसी जगह पहुंच गया जो खूंखार जानवरों के लिए जानी जाती है और भालू का बहुत ज्यादा खतरा रहता है।

ट्रेक करने के लिए जो भी तैयारी होती है वह मैंने पूरी की थी पर समय का जो कैलकुलेशन था वह यह था कि सात बजे तक वापस चले जायेंगे। मुझे यह नहीं पता था कि छह बजे के बाद यह जंगल भरे पहाड़ अंधेरे से मुझे ढक लेंगे और मेरा निकलना मुश्किल हो जायेगा।

मैंने तकरीबन तीन बजे लामा टॉप का ट्रेक हर्षिल से शुरू किया जो कि महज़ दो किमी का है पर खड़ी चढ़ाई और संकरा रास्ता होने के नाते समय ज्यादा लग जाता है। मैं आगे बढ़ता रहा, बस आगे बढ़ता रहा, मुझे लगा कि इस ट्रेक पर मेरे जैसे और भी लोग होंगे पर पूरे रास्ते में मुझे एक भी व्यक्ति नहीं मिला।

करीब साढ़े पांच बजे मैं उस पहाड़ की सबसे ऊंची यानि कि लामा टॉप पर पहुंच गया। इस जगह पर छह जुलाई को दुनिया भर से लोग दलाईलामा का जन्मदिन मनाने आते हैं और इस जगह को आत्मिक शांति का प्रतीक माना जाता है। बहुत मुश्किल से ट्रेक किया था और ऊपर पहुंचकर मुझे बहुत खुशी हो रही थी।

मुझे लग रहा था कि जब ऊपर चढ़ाई में ढाई घंटे लगे हैं तो उतरने में डेढ़ घंटे लगेंगे और सचमुच इतना ही लगना था। मैंने फोटाग्राफी और वीडियोग्राफी की, कुछ दोस्तों से बात किया और तकरीबन 15 मिनट वहां बैठा रहा। बहुत ही शांत और बहुत ही सकूनदेह जगह है। मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा था।

छह बजे से मैंने लामा ट्रेक से वापसी शुरू की तो सचमुच उतारना आसान लग रहा था पर अचानक से अंधेरा हो गया, मतलब कि मानोंकी अर्धरात्रि का समय हो जबकि उस समय छह बज रहे थे। मैंने फोन की लाइट जलाया और नीचे उतरने लगा पर यह खतरनाक साबित हुआ। मेरा पैर फिसला और गनीमत ये रही कि बड़े से पत्थर से टकरा गया।

अगर पत्थर नहीं होता तो मैं तकरीबन 300 फ़ीट नीचे खाई में चला जाता। पूरी पहाड़ी पर घुप्प अंधेरा और आसपास कोई नहीं। मैंने ईश्वर को याद किया और एक जगह पर पांच मिनट तक शांत बैठ गया। गिरने के कारण मेरे दाएं हाथ में खरोंच आ गई थी और उसमें से खून निकल रहा था।

कुछ देर बाद मैंने फिर से चलना शुरू किया। एक घंटे में तकरीबन नीचे आ गया और जब 600 मीटर बाकि रह गया तो अंधेरे की वजह से रास्ता भटक गया पर मुझे लगा कि सही रास्ते पर हूं। अंधेरा इतना ज्यादा था कि कदम कहां पड़ रहे पता नहीं चल रहा था और एक गलत कदम पड़ा तो सीधे 300 फ़ीट नीचे खाई में पहुंच जाते।

फिर भी चलता रहा और तकरीबन एक किमी चलने के बाद नदी दिखाई दी जो विपरीत दिशा में बह रही थी और तब जाकर मुझे अंदाजा हुआ कि मैं तो रास्ता भटक गया हूं। इधर कैसे आ गया और कदम रुकते-रुकते फिसल गए और सीधे मैं नदी में जा पहुंचा। मेरे जूते भीग गए और मैं इस घटना से पूरी तरह से कांप गया।

लोग कहते हैं कि डरो मत लेकिन सच कहूं तो इस डर ने ही मुझे जिन्दा रखा। मैंने डरकर अपनी जीपीएस लोकेशन सभी को भेज दिया और स्पष्टतौर पर बताया कि मैं फंस चुका हूं और बिना मदद के बाहर नहीं निकल पाऊंगा। मैंने फोन की बैटरी और नेटवर्क देखा तो नेटवर्क पूरा था पर बैटरी सिर्फ 15% रह गई थी।

मैंने एक बार फिर से हिम्मत दिखाई लेकिन अंधेरा इतना ज्यादा था कि कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि कदम कहां पड़ रहे हैं और वहां से निकलना चाहा तो कोई रास्ता ही नहीं मिला। अब मुझे यह पूरा-पूरा अहसास हो गया था कि मैं फंस गया हूं। मैं बार-बार अपने आपसे यही कह रहा था कि हिम्मत नहीं हारनी है, हिम्मत नहीं हारनी है और अपने दिमाग को संतुलित करने की कोशिश कर रहा था।

मुझे नहीं पता था कि कोई बचाने आएगा कि नहीं लेकिन दूसरी तरफ उत्तराखंड पुलिस और उत्तराखंड पर्यटन को मेरी जीपीएस लोकेशन मिल गई थी। हरसिल के थानाध्यक्ष अजय शाह का फोन आया और एक बार उन्होंने कन्फर्म किया कि कहां हूं। मैंने उन्हें समझाया

सबसे पहले अपना जीपीएस ऑन किया और जिला पर्यटन अधिकारी, पुलिस अधीक्षक, अपने होमस्टे तो उनके होश उड़ गए क्योंकि यह पूरा क्षेत्र जंगली जानवरों से भरा हुआ है और भालुओं का बहुत ज्यादा खतरा रहता है और वहां 10-15 मिनट भी रहना मतलब की अपनी मौत को नेवता देना।

फिर मुझे यहां के बचाव दल प्रमुख राघवेन्द्र मधु और संदीप भाई का फ़ोन आया। मुझे कहा गया कि वहां से थोड़ा अगल बगल हो जाओ और जब तक हम ना पहुंचे कोई मोमेंट नहीं करना। मैंने अपने मन को बिल्कुल ही स्थिर कर लिया। ठंड बहुत ज्यादा थी। मैंने आग जलाने की कोशिश की लेकिन जली नहीं।

दूसरी तरफ पुलिस और स्थानीय बचाव दल ने तत्परता दिखाई और किसी अनहोनी से पहले पहुंचकर मुझे रेस्क्यू किया। सच कहूं तो मुझे तो अंदाजा भी नहीं था कि मैं किसी खड्ड में गिरा हुआ हूं। तकरीबन 10-12 लोगों के दल ने मुझे बाहर निकाला, उनकी पहली वर्डिंग यह थी कि सर आप घबड़ाना मत जरूरत पड़ी तो हम आपको दिल्ली तक सुरक्षित पहुंचाएंगे।

हरसिल में मुझे मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध कराई गईं और मेडिकल ऑब्जेर्वशन में कुछ देर रखने के पश्चात मुझे मेरे होमस्टे तक पहुंचाया गया। मैंने अपना फोन ऑन करने की कोशिश की तो ऑन नहीं हुआ। शायद गिरने के कारण वह डैमेज हो गया था।

फिर मैंने खाना खाया और हल्दी दूध पीकर सो गया।

[ उत्तराखंड पुलिस, उत्तराखंड पर्यटन और विशेषतौर पर राघवेंद्र भाई, संदीप भाई, हरीश जी और यहां के थानाध्यक्ष अजय शाह का धन्यवाद। आप सबने मेरे डर को मुस्कराहट में बदल दिया ]

– संजय शेफर्ड