महाशिवरात्रि पर विशेष- हर हर महादेव, कल्याण के देवता हैं शिव

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शिव के कई नाम हैं और सभी नामों के अलग अर्थ और अलग महत्व है। वैसे तो कई देवता ऐसे हैं जिनके सहस्र नाम सहजता से पाए जाते हैं किंतु शिव के नामों का अर्थ विस्तार उनकी जन प्रियता का प्रमाण है। उनके ये नाम उनकी उत्पत्ति और सामाजिकता के सूचक हैं। विद्वान उन्हें वैदिक देवता के साथ ही अनार्य देवता भी सिद्ध करते आ रहे हैं। शिव का स्वरूप ही ऐसा है कि कोई उन्हें चाहे तो वैदिक देवता सिद्ध कर दे चाहे तो अवैदिक और अनार्य और आदिवासी समाज का देव भी। जाकी रही भावना जैसी वाली बात शिव पर सर्वथा लागू होती है। शिव योगी और गृहस्थ, विद्यापति और मूर्खता की सीमा तक भोले, सफल गृहस्थ और अनिकेतन सब कुछ एक साथ हैं। ऐसे अनेक विरोधाभासों का सहज मेल ही शिव का सच्चा स्वरूप है। पहले दक्षपुत्री सती के साथ और आगे चल कर हिमालय की पुत्री गौरा पार्वती के साथ उथल-पुथल भरा किन्तु सफल दाम्पत्य निर्वाह करने और अकुल से कुल ओर जाने की सहज शक्ति के केन्द्र हैं शिव। शिव अकुल हैं। यानी उनका कोई अपना पूर्वज नहीं है। भारतीय संस्कृति का विकास शिव स्वरूप के विकास से जुड़ता है। ज्ञान और कलाओं, व्याकरण, अक्षर, संगीत और नाट्य शास्त्र, धनुर्वेद और ज्योतिष जैसी विद्याओं के कारक के रूप में शिव का नाम सहज ही सामने आता है। उनके धनुर्वेद का ज्ञान ही महाभारत के युद्ध में कौरव और पाण्डव दोनों पक्षों के योद्धाओं के धनुष की टंकार बनता है। परशुराम और अर्जुन के द्वारा यह विद्या दोनों पक्षों में पहुँची है। भारतीय साहित्य-कला, इतिहास-पुरातत्व, लोक-शास्त्र का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहाँ शिव की छाप न हो। सिंधुघाटी के महायोगी का वैदिक रुद्र से जुड़ कर पशुपति स्वरूप ग्रहण करना और देवता के आसन से ऊपर उठ कर महादेव या महेश हो जाना शिव के देवत्व का ही विस्तार है।
शिव के रूप के साथ ही शिव के कर्म में भी एक विचित्र प्रकार की विविधता है। वे संहार के साथ ही कल्याण के देवता है। वे आशुतोष रूप में शीघ्र प्रसन्न होकर वर देते हैं तो रुद्र रूप में संसार को नष्ट करने के लिए उद्धत हो जाते हैं। भारतीय सभ्यता के प्रथम देवता हैं जिनका अंकन मानवाकृति में किया गया है। साथ ही लिंग-चिह्न रूप में भी उनका होना वर्णित है। शिवलिंग और शिवाकृति दोनों रुप सिंधु सभ्यता की मुहरों में पाई गई है। अथर्व वेद में उन्हें सदाशिव, शिव और महादेव कह कर संबोधित किया गया है। आगे चल कर शंभु, विश्वनाथ, उमा का पति होने के नाते उमेश, पशुओं का रक्षक होने के नाते पशुपति पशुपति, मत्युंजय जैसे कई नाम प्राप्त हुए। गौर करने वाली बात यह है कि ये सभी नाम शिव के आर्य देवता होने से संबंधित हैं।
महाशिवरात्रि व्रत का विशेष महत्व है। आइए इस पावन मौके पर जाने द्वादश ज्योतिर्लिंगों के बारे में।
नागेश्वर- भगवान शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत में द्वारकापुरी से लगभग 17 मील की दूरी पर स्थित है। इस पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महीमा बताई गई है। कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्मय की कथा सुनेगा, वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा। भगवान शिव के आदेश से ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।
त्र्वम्बकेश्वर- भगवान त्र्वम्बकेश्वर का ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र प्रांत में नासिक से 30 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित है। बहुत से ऋषियों, मुनियों और देवगणों ने वहां एकत्र होकर भगवान शिव से सदा वहां निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात मानकर वहां त्र्यबक ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थापित हो गए। गौतम जी द्वारा लाई गई गंगा जी भी वहीं पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगी। यह ज्योतिर्लिंग समसत पुण्यों को प्रदान करने वाला है।
रामेश्वर –इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम ने की थी। स्कंदपुराण में इसकी महिमा विस्तार से वर्णित है। इसके विषय में यह कथा कही जाती है जब भगवान राम लंका पर चढ़ाई करने के लिए जा रहे थे, तब इसी स्थान पर उन्होंने समुद्रतट की बालुका से शिवलिंग बनाकर उसका पूजना किया था।
वैद्यनाथ- यह ज्योतिर्लिंग झारखंड के संथाल परगना में स्थित है। यह वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग अनंत फलों को देने वाला है। दरअसल रावण इस शिवलिंग को लेकर लंका ले जा रहा था, लेकिन शिव की महिमा के कारण ऐसा नहीं सका था। फलस्वरूप वह यहीं पर शिवलिंग छोड़कर चला गया। इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने यहां इस शिवलिंग की प्रतिष्ठा की।
विश्वेश्वर- यह ज्योतिर्लिंग उत्तर भारत की प्रसिद्ध नगरी काशी में स्थित है। इस नगरी का प्रलयकाल में भी लोप नहीं होता। इस नगरी का प्रलयकाल में भी लोप नहीं होता। उस समय भगवान अपनी वासभूमि इस पवित्र नगरी को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टिकाल आने पर पुनः यथास्थान रख देते हैं। सृष्टि की आदि स्थली भी इसी नगरी को बताया जाता है। भगवान विष्णु ने इसी स्थान पर अपनी तपस्या द्वारा भगवान शिव को संतुष्ट किया था।
भीमेश्वर- यह ज्योतिर्लिंग पुणे से लगभग 100 किलोमीटर दूर सेह्याद्री की पहाड़ी पर स्थित है। इसे भीमाशंकर भी कहते हैं। देवताओं ने शिव से प्रार्थना की कि लोककल्याणार्थ आप यहीं निवास करें। देवों की प्रार्थना स्वीकार कर शिव सदा के लिए वहां ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए।
केदारनाथ- यह ज्योतिर्लिंग पर्वतराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित है। पुराणों एवं शास्त्रों में केदारेश्वर- ज्योतिर्लिंग की महिमा का वर्णन किया गया है। इस चोटी के पश्चिम भाग में पुण्यमयी मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित केदारेश्वर महादेव का मंदिर अपने स्वरूप से ही धर्म और अध्यात्म की ओर बढ़ने का संदेश देता है। चोटी के पूर्व में अलकनंदा के सुरम्य तट पर बदरीनाथ का परम प्रसिद्ध मंदिर है।
ओंकारेश्वर- यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान पर नर्मदा के दो धाराओं में विभक्त हो जाने से बीच में एक टापूप सा बन गया है। इस टापू को मान्धाता पर्वत या शिवपुरी कहते हैं। नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर और दूसरी दक्षिण होकर बहती है। दक्षिण वाली धारा ही मुख्य धारा मानी जाती है। इसी मान्धता पर्वत पर श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मंदिर स्थित है।
महाकालेश्वर- यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में है। पुण्यसलिला क्षिप्रा में उज्जयिनी के नाम से विख्यात था। इसे अवन्तिकापुरी भी कहते थे। यह भारत की परम पवित्र सप्तपुरियों में से एक हैं। महाभारत, शिवपुराण एवं स्कंदपुराण में महाकाल ज्योतिर्लिंग की महिमा का पूरे विस्तार के साथ वर्णन किया गया है।
मल्लिकार्जुन- आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर दक्षिण का कैलाश कहे जाने वाले श्रीशैलपर्वत पर श्रीमल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग स्थित है। महाभारत, शिवपुराण तथा पद्मपुराण आदि धर्मग्रंथों मंर इसकी महिला और महत्ता का विस्तार से वर्णन किया गया है।
धुश्मेश्वर –इसे घुश्मेश्वर, घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है। यह महाराष्ट्र में दौलताबाद से बारह मील दूर वेरुलगांव के पास स्थित है।
सोमनाथ-यह ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत के काठियाबाड़ क्षेत्र में समुद्र के किनारे स्थित है। पहले यह क्षेत्र प्रभासक्षेत्र के नाम से जाना जाता था। यहीं भगवान श्रीकृष्ण ने जरा नामक व्याध के बाण को निमित्त बनाकर अपनी लीला का संवरण किया था।