‘डॉ.अंबेडकर और राष्ट्रवाद’ पुस्तक का विमोचन किया गया

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नई दिल्ली-

कॉन्स्टिट्यूशन क्लब, रफी मार्ग, नई दिल्ली में प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित तथा लेखक बसंत कुमार द्वारा लिखी गई पुस्तक डॉ. अंबेडकर और राष्ट्रवाद (Dr. Ambedkar and Nationalism) का लोकापर्ण पूर्व केंद्रीय मंत्री व भाजपा संसदीय बोर्ड के सदस्य डॉ. सत्यनारायण जटिया द्वारा किया गया। इस मौके पर पदमभूषण से सम्मानित डॉ. बिन्देश्वर पाठक (संस्थापक, सुलभ स्वच्छता और मानवाधिकार आंदोलन), श्री दुष्यन्त गौतम (भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री व पूर्व सांसद, राज्यसभा), माननीय डॉ. देवेंद्र सरोज (प्रोफेसर, सुरे यूनिवर्सिटी, लंदन, इंग्लैंड) और श्री लाल सिंह आर्य (राष्ट्रीय अध्यक्ष, भाजपा एससी मोर्चा) ने भी कार्यक्रम की शोभा बढाई।

‘डॉ. अंबेडकर और राष्ट्रवाद’ नामक पुस्तक का प्रथम संस्करण हिन्दी में पहले ही प्रकाशित हो चुका है। हिन्दी की अपार सफलता के बाद व अंग्रेजी संस्करण की डिमांड बढ़ने के कारण इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद करवाकर हिन्दी व अंग्रेजी में इसका का विमोचन किया गया।
मुख्य अतिथि डॉ. सत्यनारायण जटिया ने इस पुस्तक पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भले भारत को आजादी 1947 में मिली हो लेकिन डॉ. भीमराव अंबेडकर भारत के उन सच्चे सपूतों में से एक हैं जिन्होंने आजादी से कई वर्ष पूर्व ही एक मजबूत भारत की नींव तैयार करना आरंभ कर दी थी। जब एक ओर समूचा स्वतंत्रता आंदोलन राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग की ओर झुका हुआ था तो उसी समय डॉ. भीमराव अंबेडकर का लक्ष्य भारत को ना सिर्फ राजनीतिक रूप से स्वतंत्र करना था बल्कि एक मजबूत राष्ट्र के रूप में सदियों तक खड़े रहने के लिए उसे सामाजिक और आर्थिक रूप से भी समर्थ व सक्षम बनाना भी था। इसी लक्ष्य को लेकर डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपनी पूरी जीवन यात्रा तय की। डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय समाज के उन बौद्धिक नेताओं में से एक हैं जो स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान ही समझ चुके थे कि एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण के लिए जातिवाद, सत्तावाद और सांप्रदायिकता से मुक्ति जरूरी है। वह सामाजिक आर्थिक विषमता के उस विषाक्त स्वरूप से अच्छे से अवगत थे जिसने भारतीय समाज को कुछ इस तरह से जकड़ रखा था कि अगर भारत राजनितिक रूप से स्वतंत्र भी हो जाता तो भी जातिवाद, सत्तावाद, साम्प्रदायिकता का दीमक उसे एक दूसरे विभाजन की ओर धकेल देता।
असल में डॉ. अंबेडकर का राष्ट्रवाद, भौगोलिक सीमाओं से अधिक समानता पर आधारित है। वह वर्तमान की उपलब्धियों पर ध्यान देने के बजाय भविष्य की आशंका को दूर करने के लिए परिश्रम करने वाले नेता थे। उन्होंने भारतीय समाज में गहरे तौर पर फैले भारी असंतोष को बड़ी अच्छी तरह से समझ लिया था। यही कारण है कि उन्होंने राष्ट्र को बनाए रखने के लिए उस असंतोष को खत्म करने के लिए आवाज बुलंद की. इसके लिए जहां एक तरफ वो अपने समय के सर्वमान्य लोकप्रिय नेता गांधी से भी टकरा जाते हैं वही दूसरी तरफ आजादी के बाद संविधान सभा की बैठक में सभा को संबोधित करते हुए अपने आप को बड़े गर्व से अछूतों का नेता घोषित करते हैं।

इस मौके पर पदमभूषण से सम्मानित डॉ. बिन्देश्वर पाठक ने कहा कि ‘डॉ. अंबेडकर और राष्ट्रवाद’ का प्रकाशन स्वः प्रेरणा से जन मानस को जागरूक करने की उद्देश्य से किया जा रहा है। किताब सरल शब्दों मे लिखी गई है, जिसे आसानी से समझा जा सकता है।
यहां यह समझना भी होगा कि अंबेडकर जी की राजनीति बांटने और राज करने की नहीं थी बल्कि वह सकारात्मक और समावेशी राजनीति करने वाले नेता थे। डॉ. अंबेडकर बड़ी अच्छी तरह समझते थे कि किसी भी प्रकार के असंतोष को लंबे समय तक नहीं दबाया जा सकता। यही कारण है कि डॉ. अंबेडकर जब संविधान सभा में शामिल होते हैं तो उनका सारा ध्यान अब तक चले आ रहे अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था बदलने पर रहता है।
डॉ. अंबेडकर एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण के लिए समाजवाद को जरूरी मानते थे। डॉ. अंबेडकर का समाजवाद सिर्फ आर्थिक समाजवाद नहीं था, सिर्फ आर्थिक समानता की बात नहीं करता बल्कि वह सांस्कृतिक समानता की बात भी करता था। सैकड़ों वर्षों से भारतीय समाज में सांस्कृतिक रूप से जो असमानता और भेदभाव की खाई घर कर गई थी जिसने समाज में असंतुलन पैदा कर दिया था, डॉ. अंबेडकर उस असंतुलन को खत्म करने की बात करते हैं।