नाटापन को मात देने में मुंगेर बिहार में पांचवें स्थान पर

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– राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 5 2019 – 20 के आंकड़ों से हुआ ख़ुलासा
– पोषण के अन्य सूचकांकों में भी हुआ सुधार

मुंगेर-

बिहार के बच्चों को नाटापन के जाल से निकलने में सफलता मिली है। आंकड़ों में मुंगेर जिला पूरे बिहार में पांचवें स्थान पर है जबकि शिवहर पहले पायदान पर है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 5 के आंकड़ों के अनुसार पिछले पांच सालों में बिहार में नाटापन ( उम्र के हिसाब से लम्बाई का कम होना) में 5.4% की कमी आई है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 4 ( वर्ष 2015-16) के अनुसार में बिहार में 48.3% बच्चे नाटापन से ग्रसित थे, जो अब राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 5 (वर्ष 2019- 20) के अनुसार घटकर 42.9% रह गया है।
नाटापन में आई कमी सुपोषित मुंगेर की राह आसान करने में प्रमुख भूमिका अदा करेगी-
जिला स्वास्थ्य समिति मुंगेर के जिला कार्यक्रम पदाधिकारी और पोषण -पुनर्वास केंद्र मुंगेर के नोडल अधिकारी विकास कुमार ने बताया, बच्चों में नाटापन होने के बाद इसे पुनः सुधार करने की गुंजाइश कम हो जाती है एवं यह बच्चों में कुपोषण की सबसे बड़ी वजह भी बनती है। इस लिहाज से नाटापन में आई कमी सुपोषित मुंगेर की राह आसान करने में प्रमुख भूमिका अदा करेगी। अपर्याप्त पोषण एवं नियमित संक्रमण जैसे अन्य कारकों के कारण होने वाला नाटापन बच्चों में शारीरिक एवं बौद्धिक विकास को अवरुद्ध करता है जो स्वस्थ भारत के सपने के साकार करने में सबसे बड़ा बाधक भी है।
उन्होंने बताया पिछले पांच वर्षों में नाटापन में कमी की बात करें तो मुंगेर जिला बिहार में पांचवें स्थान पर है। मुंगेर में नाटापन 11.1 % कम होकर 35.5 % हो गया।

‘बाल कुपोषण मुक्त बिहार’ अभियान बना सूत्रधार :
पोषण एवं पुनर्वास केंद्र मुंगेर की फीडिंग डेमोंस्ट्रेटर रचना भारती ने बताया राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 5 के अनुसार पिछले पांच सालों में बिहार में नाटापन में कमी आयी है। यद्यपि, इस सुधार में पोषण एवं स्वास्थ्य के कुछ विशेष सूचकांकों में आई कमी का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण – 5 के अनुसार जिले में पिछले पांच सालों में बिहार में 6 माह तक केवल स्तनपान, संस्थागत प्रसव, महिला सशक्तीकरण, संपूरक आहार ( 6 माह के बाद स्तनपान के साथ ठोस आहार की शुरुआत), कुल प्रजनन दर में कमी, 4 प्रसव पूर्व जाँच एवं टीकाकरण जैसे सूचकांकों में सुधार हुआ है। ये सूचकांक कहीं न कहीं नाटापन में कमी लाने में सहायक भी साबित हुए हैं। लेकिन वर्ष 2014 में शुरू की गई ‘बाल कुपोषण मुक्त बिहार’ अभियान नाटापन पर अधिक केन्द्रित था। इस तरह अभियान के तहत किए गए सार्थक एवं सामूहिक प्रयास नाटापन में कमी लाने में सूत्रधार बना। वहीं मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना, समेकित बाल विकास सेवा सुदृढ़ीकरण एवं पोषण सुधार योजना (आईएसएसएनपी), पोषण अभियान एवं ओडीएफ़ जैसे कार्यक्रमों का बेहतर क्रियान्वयन भी नाटापन में सुधार लाने में सकारात्मक प्रभाव डाला है।

नाटापन के गंभीर दूरगामी परिणाम :
उन्होने बताया उम्र के हिसाब से लंबाई कम होना ही नाटापन कहलाता है। गर्भावस्था से लेकर शिशु के 2 वर्ष तक की अवधि यानी 1000 दिन बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास की आधारशिला तैयार करती है। इस दौरान माता एवं शिशु का स्वास्थ्य एवं पोषण काफी मायने रखता है। इस अवधि में माता एवं शिशु का खराब पोषण एवं नियमित अंतराल पर संक्रमण नाटापन की सम्भावना को बढ़ा देता है। नाटापन होने से बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध होता है| साथ ही नाटापन से ग्रसित बच्चे सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक बीमार पड़ते हैं। उनका आई-क्यू स्तर कम जाता है एवं भविष्य में आम बच्चों की तुलना में वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ भी जाते हैं।

घर के पुरुष भी सुनिश्चित करें अपनी सहभागिता :
घर-घर सुपोषण की अलख जगाने की दिशा में आईसीडीएस एवं स्वास्थ्य विभाग के साथ कई अन्य सहयोगी संस्था भी निरंतर कार्य कर रही है। लेकिन सरकारी प्रयासों के इतर इसको लेकर सामुदायिक जागरूकता एवं सहभागिता भी महत्वपूर्ण है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी बच्चे के बेहतर स्वास्थ्य एवं पोषण को लेकर माताओं की सक्रियता अधिक है। अभी भी पुरुष अपने बच्चे के पोषण को लेकर गंभीर नहीं है। गर्भवती महिला का स्वास्थ्य एवं पोषण, बच्चों का स्तनपान एवं संपूरक आहार जैसे बुनियादी फैसलों में पुरुषों की सहभागिता होने से कुपोषण के दंश से बच्चों को बचाया जा सकता है।