कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है। हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़कर देखते हैं, वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना यानी अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना.
– सरफराज अहमद सिद्दीकी
नई दिल्ली –
कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है। हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़कर देखते हैं, वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना। यानी अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना। इसी भावना को उजागर करता है मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्योहार ईद-उल-जुहा जिसे हम बकरीद के नाम से भी जानते हैं। ईद-उल-जुला मुसलमान कैलेंडर का एक महत्वपूर्ण त्योहार है।
बलिदान का त्योहार है ईद-उल-जुहा
दरअसल, इस्लामी साल में दो ईदों में से एक है बकरीद। ईद-उल-जुहा और ईद-उल-फितर। ईद-उल-फितर को मीठी ईद भी कहा जाता है। इसे रमजान को समाप्त करते हुए मनाया जाता है। एक और त्योहार है ईद-उल-मीनाद-उन-नबी, लेकिन बकरीद का महत्व अलग है। इसे बड़ी ईद भी कहा जाता है। हज की समाप्ति पर इसे मनाया जाता है। इस्लाम के पांच फर्ज माने गए हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। मुसलमानों के लिए जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज होने की खुशी में ईद-उल-जुहा का त्योहार मनाया जाता है। यह बलिदान का त्योहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो।
सबको साथ लेकर चलने की सीख देता है बकरीद
रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों में। जिस तरह ईद-उल-फितर को गरीबों में पैसा दान के रूप में बांटा जाता है, उसी तरह बकरीद को गरीबों में मांस बांटा जाता है। यह इस्लाम की खासियत है कि वह अपने किसी भी पर्व में समाज के कमजोर और गरीब तबके को भूलते नहीं हैं, बल्कि उनकी मदद करना उनके धर्म का एक अभिन्न अंग है। यह पर्व जहां सबको साथ लेकर चलने की सीख देता है, वहीं बकरीद यह भी सिखाती है कि सच्चाई की राह में अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। इस त्योहार को मनाने के पीछे भी एक कहानी है, जो दिल को छू जाती है। हजरत इब्राहिम द्वारा अल्लाह के हुक्म पर अपने बेटे की कुर्बानी देने के लिए तत्पर हो जाने के याद में इस त्योहार को मनाया जाता है।
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हजरत इब्राहिम को पैगंबर के रूप में जाना जाता है, जो अल्लाह के सबसे करीब है। उन्होंने त्याग और कुर्बानी का जो उदाहरण विश्व के सामने पेस किया वह अद्वितीय है। इस्लाम के विश्वास के मुताबिक, अल्लाह हजरत इब्राहिम की परीक्षा लेना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने उनसे अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देने के लिए कहा। हजरत इब्राहीम को लगा कि उन्हें सबसे प्रिय तो उनका बेटा है, इसीलिए उन्होंने अपने बेटे की ही बलि देना स्वीकार किया। हजरत इब्राहिम को लगा कि कुर्बानी देते समय उनकी भावनाएं आड़े आ सकती है, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। जब अपना काम पूरा करने के बाद पट्टी हटाई, तो उन्होंने अपने पुत्र को अपने सामने जिंदा खड़ा हुआ देखा। बेदी पर कटा हुआ मेमना पड़ा हुआ था। तभी से इस मौके पर बकरे और मेमनों की बलि देने की प्रथा है।
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कुछ जगह लोग ऊंटों की भी बलि देते हैं। यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों ही धर्म के पैंगबर हजरत इब्राहीम ने कुर्बानी का जो उदाहरण दुनिया के सामने रखा था उसे आज भी परंपरागत रूप से याद किया जाता है। आकाशवाणी हुई कि अल्लाह की रजा के लिए अपनी सबसे प्यारी चीज कुर्बानी करो, तो हजरत इब्राहीम ने सोचा कि मुझे तो अपनी औलाद ही सबसे प्रिय है। उन्होंने अपने बेटे को ही कुर्बान कर दिया। उनके इस जज्बे को सलाम करने का त्योहार है ईद-उल-जुहा।
कुर्बानी का अर्थ है कि रक्षा के लिए सदा तत्पर। हजरत मोहम्मद साहब का आदेश है कि कोई व्यक्ति जिस भी परिवार, समाज, शहर या मुल्क में रहने वाला है, उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह उस देश, समाज, परिवार की हिफाजत के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार रहें। ईद-उल-फितर की तरह ईद-उल-जुहा में भी गरीबों और मजलूमों का खास ख्याल रखा जाता है। इसी मकसद से ईद-उल-जुहा के सामान यानी कि कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं।
एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाता है, बाकी दो हिस्से समाज में जरूरतमंदों में बांटने के लिए होते हैं, जिसे तुरंत बांट दिया जाता है। नियम कहता है कि पहले कर्ज उतारें, फिर हज पर जाएं। तब बकरीद मनाएं। इसका मतलब है कि इस्लाम व्यक्ति को अपने परिवार, अपने समाज के दायित्वों को पूरी तरह निभाने पर जोर देता है।