NRC पर छिड़ी बहस को समझने के लिए इतिहास के पन्ने पलटना जरूरी

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नई दिल्ली –

 

असम सरकार द्वारा जारी एनआरसी के फाइनल ड्राफ्ट में चालीस लाख लोगों के नाम शामिल नहीं होने को लेकर देश में बहस चल रही है. एकतरफ सरकार इसे राष्ट्र की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए इस मुद्दे पर गंभीरतापूर्वक विचार करने का पक्ष रख रही है तो वहीँ विपक्ष, खासकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी इस मुद्दे को राजनीति रंग देने और तुष्टिकरण की सियासत करने में लगी हुई हैं. आज जब असम सरकार ने अवैध ढंग से रह रहे गैर-नागरिकों की पहचान करने की पहल की है, ऐसे में राष्ट्रीय सुरक्षा पर एकजुटता दिखाने की बजाय विपक्ष द्वारा भ्रम और भय का वातावरण तैयार करने की कोशिश भी देखने को मिल रही है.

 

इस बहस को समझने के लिए हमें इतिहास में जाकर इसकी पड़ताल करनी होगी.दरअसल असम राज्य से जुड़ा यह मामला लगभग देश की आजादी के कालखंड जितना पुराना है. गौरतलब है कि 12 अगस्त1949 को संविधान सभा में रोहिणी कुमार चौधरी द्वारा सबसे पहले असम में पड़ोसी मुल्क से हो रहे घुसपैठ का मुद्दा उठाया गया था. अखबारों के हवाले से उन्होंने कहा था कि लगभग 3 लाख लोग (मुस्लिम) अवैध ढंग से असम में घुसपैठ किये हुए हैं, जो राष्ट्र की सुरक्षा के लिए उचित नहीं है. इस पर उस दौरान 1950 अंतरिम संसद द्वारा एक कानून भी लाया गया था.

 

आगे चलकर1951 भी एक एनआरसी बना था, लेकिन गोवाहाटी उच्च न्यायलय द्वारा वह खारिज कर दिया गया.इस मामले में एक नई प्रगति 1971 में हुई जब बांग्लादेश अस्त्तित्व में आया. हालांकि इससे पहले काफी संख्या में शरणार्थी भारत के असम और बंगाल जैसे सीमावर्ती राज्यों में प्रवेश कर चुके थे. शरणार्थियों की बढती संख्या और स्थानीय हितों पर चिंता जताते हुए तब वहां के छात्रों के संगठन ‘आसू’ ने 1978 से बड़ा आन्दोलन भी किया. यह आन्दोलन वहां के स्थानीय हितों की रक्षा और अवैध शरणार्थियों से होने वाले खतरे को लेकर था. इस आन्दोलन में कई छात्रों की जान भी गई थी.

 

यह आन्दोलन इतना प्रभावी और असम के लोगों की भावना से जुड़ा रहा अंतत: 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा असम एकॉर्ड पर दस्तखत कर, इन अवैध घुसपैठियों की पहचान और इन्हें बाहर करने के लिए नागरिकता क़ानून में एक नया बदलाव करना पड़ा. इस कानून (संशोधन) की आत्मा भी यह थी कि 1966 तक असम में आकर रहने वाले शरणार्थियों को सीधे नागरिकता सूचि में जगह दी जायेगी एवं इसके बाद और 25  मार्च1971 की आधी रात से पहले आये शरणार्थियों की पहचान करने के दस साल बाद उन्हें नागरिकता देने का प्रावधान था.अत: राजीव गांधी द्वारा किये गए उस असम एकॉर्ड के मुताबिक़ 25 मार्च1971 के बाद आये किसी भी अवैध ढंग से आये बांग्लादेशी को असम में रहने का और भारत की नागरिकता मिलने का प्रावधान नहीं था.

 

इसके बाद आने वाले जो भी बांग्लादेशी थे, वे घुसपैठी के रूप में असम में रह रहे हैं और उन्हें 1983 के IMDT कानून के अंतर्गत निकाल दिया जा सकता था. लेकिन IMDT को लेकर भी कांग्रेस ने अपने राजनीतिक स्वार्थ का खेल खेल दिया. इस कानून के अंतर्गत अपनी नागरिकता और असम में रहने की वैधता का प्रमाण उस व्यक्ति को नहीं देना था, जो अवैध ढंग से रह रहा हो. यह प्रमाण उस शिकायतकर्ता को देने का प्रावधान था, जो इस संबंध में शिकायत दर्ज कराता हो. जबकि 1946 के‘फोरेनार्स एक्ट’ के तहत यह दायित्व जिसके खिलाफ़ शिकायत आई है, उसका होना चाहिए. गौरतलब है कि 1983 का IMDT कानून सिर्फ असम राज्य में लागू किया गया था.

 

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इस मामले अगला विषय एकबार फिर 2005 में तब सामने आया जब असम के वर्तमान मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल की याचिका पर उच्चतम न्यायलय ने यह साफ़ कर दिया कि 1983 का IMDT कानून असंवैधानिक है. साथ ही कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि इस कानून की आड़ में बढ़ रही अवैध घुसपैठ की समस्या के कारण असम में जनसांख्यिक बदलाव हो रहे हैं और इसे उन्होंने अन्तराष्ट्रीय इस्लामिक कट्टरपन्थ से जोड़ा. गौरतलब है कि असम की भौगोलिक स्थिति का सामरिक स्तर पर भी और सुरक्षा के स्तर पर अत्यंत संवेदनशील महत्त्व है, लिहाजा, अवैध घुसपैठ की घटनाएँ एक बड़े खतरे के रूप में देखी जानी स्वाभाविक हैं.

 

जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार केंद्र में थी, तब 2003 में इस सरकार असम एकॉर्ड की मूल भावना को, जिसे कांग्रेस ने ठंडे बस्ते में डाल दिया था, सही रूप में लागू कराने हेतु नागरिकता नियम 2003 केसेक्शन-4 के तहत एनआरसी का प्रावधान किया. लेकिन ऐसा होने के महज कुछ समय बाद जब दुबारा कांग्रेस केंद्र की सत्ता में आई , तब उसने इसे एकबार हीला-हवाली करते हुए ठंडे बस्ते में डाल दिया.एक सामाजिक संस्था द्वारा 2009 में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायलय ने 2014 में कहा कि एनआरसी को समयबद्ध तरीके से तैयार किया जाए.

 

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यह कोर्ट द्वारा कहा गया था. इसी निर्णय के आधार पर 31 दिसंबर 2017 को एनआरसी का पहला प्रारूप जारी किया गया और 30 जुलाई 2018 को दूसरा और अंतिम प्रारूप जारी किया गया. अगर किसी भारतीय नागरिक का नाम इस प्रारूप से छूट गया हो, तो उन्हें 7 अगस्त से 28 सितंबर तक इस गलती ठीक करने के लिए आवेदन का समय दिया गया है. इसके उपरान्त भी अगर कोई शिकायत हो, तो पहले ट्रिब्यूनल और फिर कोर्ट जाने का अधिकार है. सरकार द्वारा भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि केवल इस प्रारूप के आधार पर किसी को देश से बाहर नहीं निकाला जायेगा.

 

 

सवाल उठता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े एक ऐसे विषय जिसपर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लगातार चिंता व्यक्त की गई है और समय-समय पर उच्चतम न्यायलय ने भी इस मामले में टिप्पणी की है, को कांग्रेस द्वारा किन कारणों से ठंडे बस्ते में डालकर राष्ट्र की सुरक्षा और असम के मूल निवासियों के हितों को दरकिनार किया गया. आज जब केंद्र की सरकार और असम की सरकार ने कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप इसपर कार्यवाही की है तो आखिर कांग्रेस सहित पश्चिम बंगाल की तृणमूल सरकार के विरोध की क्या वजह है.

 

जिस ढंग से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने इस पूरे मामले में असंवेदनशील रुख का परिचय दिया है, वह इस बात का प्रमाण है कि उन्हें राष्ट्र के हितों की कोई चिंता नहीं है बल्कि वे सिर्फ वोटबैंक और तुष्टिकरण की राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं. इस मामले में यह भ्रम प्रसारित करना भी विपक्ष की असंवेदनशीलता का परिचय देता है कि सरकार उन सभी लोगों को बाहर निकाल रही जिनके नाम इस प्रारूप में नहीं है. सही तथ्यों से जनता को गुमराह करके विरोधी दलों का इस राष्ट्र सुरक्षा से जुड़े विषय पर रुख कतई उचित नहीं है.